सोचा कुछ लफ़्ज़ों से खेलूं, पर अब दिमाग खाली-सा है,
सोचा खरीद लूँ कुछ लम्हे, पर नोट फटा जाली-सा है
हर लम्हा है एक खेल, है इसमें हार-जीत का क्या मतलब?
जो जीता वो तो नहीं सिकंदर, जो हारा गाली-सा है
है गाली बड़ी निराली, पर ये भेद नहीं समझे दुनिया
जो समझे उसके कानो को आलोचन भी ताली-सा है
कह दें सारे ही किस्से या कुछ को बेमौत मर जाने दें,
ऐसे तो सारे किस्सों का आकार एक प्याली-सा है
इन पैरों के नीचे से अब धरती है लगी फिसलने को
अपनी तो है वो दुनिया जिसमें हर पुलाव ख्याली-सा है
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