एक हरियाली की चादर-सी आँखों ऊपर चढ़ जाती है
बरसों की प्यासी धरती को है नीर पिलाती जब बूँदें,
चल कूद पड़ें इस मेले में और भूल चलें इस दुनिया को,
छोडें अब आँचल वसुधा का, चल आज नया कोई नभ ढूँढें
बादल पर पाँव रखा तो शर्मा कर पानी हो जाना है,
चाँद और सूरज से परे ठिकाना और नया कोई अब ढूँढें,
जिस उपरवाले के पीछे इंसान बना खुद का दुश्मन,
उस के दर पर दस्तक देने का और ही कोई सबब ढूँढें
दुनिया तो चलती आई है, ऐसे ही चलती जाएगी,
है फेर समय का, हर कोई बस अपना ही मतलब ढूंढें,
चल पकड़ समय को बांधें, फिर न निकल कहीं अब जाने दें,
है मोल समय का जिन्हें वही हर रोज़ नया करतब ढूँढें
रुकने का यहाँ पर काम नहीं, जब तक सांसें चलती जायें,
इस दौड़-धुप में कौन भला अब हुआ कहाँ गायब ढूँढें?
छोडो इस आपाधापी को, सब चूल्हे-भाड़ में जाने दो,
डालो लिबास और चलो शहर में नया कहीं कोई club ढूँढें
2 comments:
Its a beautiul poem ...and very nice end :)
Thanks...and thanks again :)
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