Thursday, October 27, 2011

दिल-fake आशिक

ये दिल भी साला फर्जी है
ख्वामखाह की खुदगर्जी है
कब कहाँ और किसपे फिसल पड़े 
ये इसकी अपनी मर्ज़ी है

परदे पर जो बदले मंज़र
दिल दरिया बने कभी सागर
पर फटी को खुद ही सी लेगा
ये दिल कमाल का दर्जी है

कभी यहाँ-वहाँ, कभी इधर-उधर
ढूंढें इक कमसिन शोख नज़र
और नज़र से नज़र मिले तो bas
matter बन जाता energy है 

जब आग के दरिये में जल के
निकलें अरमां पिघल-पिघल के
तभी ससुर समझ आएगी ये
love से बेहतर तो lethargy hai

पर इश्क़ करो, पुरज़ोर करो
गर ग़म खाओ तो और करो
जब दर्द ही आप दवा हो तो
फिर दर्द से काहे allergy है?

ससुर क्या फसाद है?

भूल गया हूँ खुद को लेकिन दुनिया सारी याद है 
दुनियादारी के नाटक के रटे सभी संवाद हैं

खोया रहता एक पल में पर पल घटते ही जाते हैं 
घड़ियाँ नापें खुद को, लेकिन वक़्त नापती याद है 

सबसे बड़ा मसीहा वो जो खुद को ठीक से पहचाने 
अपने ही दोज़ख से बचना, बस एक यही जिहाद है 

बेचैनी से क्या बचना, ये जिंदा रहने की जिद है 
संतोष अगर है प्रीत की बरखा, तो बेचैनी खाद है 

Friday, October 14, 2011

कृष्तर्क (Kritique)

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोSस्त्वकर्मणि ||
You have the right to play, but no claim to the loot
Inaction is no answer to inaccessible fruit

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि ग्रहणति नरोSपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, न्यन्यानि संयाति नवानि देहि || 

As men cast off ragtags, and new clothes are worn
The soul leaves old bodies, finds new ones to return