Friday, November 20, 2015

मज़हबी

अगर तुम हिन्दू होतीं
रोज़ नए रूप में रूबरू होतीं
हर दिन मेरी किसी नयी बात पर निसार होतीं
मेरे बारे में रोज़ नयी कहानियां गढ़तीं
और रोज़ मेरी पुरानी कहानियों से लड़तीं
मुझसे जी भर के मिलतीं
पर मुझको रत्ती भर भी ना मिलतीं
कहीं ना होकर भी हर सू होतीं
अगर तुम हिन्दू होतीं

अगर तुम मुसलमाँ होतीं
कभी पूरा ना होने वाला अरमां होतीं
हर रोज़ पहली सी मोहब्बत करतीं
खुद से ज़्यादा मुझपे यकीन करतीं
मेरी गलतियों को छुपा लेतीं
मेरे एक वादे पर ज़िन्दगी बिता लेतीं
मेरी किसी बात को ना टाल पातीं
मुझको मुसीबत में संभाल पातीं
मेरी हर परेशानी से परेशां होतीं
अगर तुम मुसलमाँ होतीं

अगर तुम क्रिस्चियन होतीं
कभी बुढ़ापा कभी बांकपन होतीं
हफ्ते भर की दुनियादारी के बाद
मुझे sunday के सुकूं की तरह मिलतीं
जब मिलतीं तो गुनहगार सी
जब बिछड़तीं तो तलबगार सी
बेज़ुबां बच्चे की ज़ुबान जैसी
बेमतलब बेपरवाह बे-सुख़न होतीं
अगर तुम क्रिस्चियन होतीं

अगर तुम बौद्ध होतीं
गीली मिट्टी सी तुम्हारी सौंध होती
अपने जज़्बातों से ही घबराई सी
छुपा लेतीं खुद को मुझे भुलाने के लिए
घूमतीं गली गली सबको समझाने के लिए
कि मोहब्बत में दर्द मिलता है
सुकूं बस फ़र्द-फ़र्द मिलता है
मैं अँधेरे में तुम्हारी आहटें तलाशता और
पूरी दुनिया तुमसे चकाचौंध होती
अगर तुम बौद्ध होती

अगर तुम सिख होतीं
लटके हुए चेहरों पर कालिख होतीं
कहानियों से खींचकर मुझको तुम
हक़ीक़त में धम से ला पटक देतीं
मेरी मोहब्बत सीधे बोतल से गटक लेतीं
हर पल में और वक़्त भर जातीं
कोई जी सके इसलिए मर जातीं
सेवा करतीं फिर भी मालिक होतीं
अगर तुम सिख होतीं

अच्छा हुआ कि तुम सिर्फ़ ये सब नहीं हो
मज़हबी हो लेकिन कोई मज़हब नहीं हो
कभी हिन्दू की ख़त्म ना होने वाली कहानी हो
कभी मुसलमाँ की अपनों के लिए क़ुरबानी हो
कभी क्रिस्चियन की जानी बूझी बेपरवाही हो
कभी सिखों के जीवन-जाम की सुराही हो
कभी वो बौद्ध जिसे किसी की तलब नहीं हो
आखिर बस इसां हो, गुटबाजी का सबब नहीं हो
अच्छा हुआ कि तुम सिर्फ़ ये सब नहीं हो