Sunday, June 24, 2012


हाय कवि क्या खाए कवि
जो रोज़ कविता हगते हो
क्यूँ उल्लू की सोहबत में
यूं  रात-रात भर जगते हो

सीधी बात कभी ना कहते
हर एक वाक्य जलेबी है
घूम-फिर के बस वही एक रोना
दुनिया बड़ी फरेबी है

दुनियादारी से है फटती
शब्दों पे इतराते हो
जो सच शब्दों में ना fit हो
उससे क्यूँ घबराते हो?

एक line में दिल के दुखड़े
दूसरी में कही धड़कन की
तुम्हें तो कुछ भी समझ ना आता
अगर ना होती तुकबंदी

क्यूँ तुक के पीछे यूं भागे
जब बेतुके हैं यहाँ सभी
लो फिर कोसने लगे सभी को
समझाया था तुम्हें अभी

खैर तुम्हारी भी क्या गलती
ये भी एक बीमारी है
और नहीं तो समय काटने
की एक कारगर आरी है

Saturday, June 23, 2012

पाप का भागी

हाथ में चाँद के टूटे टुकड़े
जेब में तारों की बारात
भूले सब दुनिया के दुखड़े
याद है तो बस आज की रात

आज की रात क़यामत की है
कल क्या हो ये किसे खबर
आज तो मैंने जुर्रत की है
कल तक सीख ना जाऊं सबर

रात की चादर ओढ़ के मैं
तुझे लोरी एक सुनाऊंगा
तेरे बदन को तोड़ के मैं
तेरी रूह से ही जुड़ जाऊंगा

कहीं किसी को चैन नहीं है
यहाँ-वहां सब फिरते हैं
दिन भर गड्ढा खोदते हैं
और रात को उसी में गिरते हैं

अपना ग़म तो इस आलम  का
एक छोटा-सा हिस्सा है
किसी की ख़ुशी पे पड़ता डाका
किसी के लिए एक किस्सा है

इस गोरखधंधे से बचना
दुनिया बड़ी सयानी है
ढूंढें से मिलता है सच ना
झूठी सारी कहानी है

कहेंगे सब जीवन तो नदी है
बहना है बस उसके साथ
कहेंगे ये तो नयी सदी है
पाप से धो लो अपने हाथ

मगर नदी ही पाप की है ये
कच्चा सबको खा जाती
हर एक नयी सदी भी अपने
साथ नए पापी लाती

मैं भी कहूँगा तुझसे कि मैं
इस सबसे रहता हूँ दूर
अन्धकार के बीच में भी मैं
कायम रखूँगा अपना नूर

पर सच तो ये है मेरी जां
जब जब देखता हूँ तुझको
अच्छे-बुरे और पाप-पुण्य का
होश  नहीं रहता मुझको

मैं भी आज इक पाप करूँगा
गर तू इजाज़त दे देगी
धीरे से चुपचाप मरूँगा
जब तू बाहों में लेगी

Wednesday, June 20, 2012

ख्याली पुलाव

सोचा कुछ लफ़्ज़ों से खेलूँ, पर अब दिमाग खाली-सा है
सोचा खरीद लूं कुछ लम्हे, पर नोट फटा जाली-सा है

लम्हे के अन्दर लम्हों की एक लम्बी लड़ी लगी रहती
इस लड़ी में उलझी पड़ी कड़ी का रूप महाकाली-सा है

मन के बागीचे में सारे गुल बेमौसम ही खिलते हैं
ना खाद है ना खुर्पी पर समझे खुद को मन माली-सा है

कभी प्रेमी जैसे छेड़ दिया, कभी बच्चों जैसी जिद पकड़ी
मन का मुझसे रिश्ता मानो कुछ-कुछ जीजा-साली सा है

ना भूत-पिशाच की चिंता है, ना रावण से कोई पंगा है
तुलसी के निठल्लेपन का नतीजा हनुमान चालीसा है

इस महंगाई में चावल आलू मटर कहाँ से लायेंगे
अपनी तो है वो दुनिया जिसमें हर पुलाव ख्याली-सा है