Sunday, June 24, 2012


हाय कवि क्या खाए कवि
जो रोज़ कविता हगते हो
क्यूँ उल्लू की सोहबत में
यूं  रात-रात भर जगते हो

सीधी बात कभी ना कहते
हर एक वाक्य जलेबी है
घूम-फिर के बस वही एक रोना
दुनिया बड़ी फरेबी है

दुनियादारी से है फटती
शब्दों पे इतराते हो
जो सच शब्दों में ना fit हो
उससे क्यूँ घबराते हो?

एक line में दिल के दुखड़े
दूसरी में कही धड़कन की
तुम्हें तो कुछ भी समझ ना आता
अगर ना होती तुकबंदी

क्यूँ तुक के पीछे यूं भागे
जब बेतुके हैं यहाँ सभी
लो फिर कोसने लगे सभी को
समझाया था तुम्हें अभी

खैर तुम्हारी भी क्या गलती
ये भी एक बीमारी है
और नहीं तो समय काटने
की एक कारगर आरी है

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