Wednesday, June 20, 2012

ख्याली पुलाव

सोचा कुछ लफ़्ज़ों से खेलूँ, पर अब दिमाग खाली-सा है
सोचा खरीद लूं कुछ लम्हे, पर नोट फटा जाली-सा है

लम्हे के अन्दर लम्हों की एक लम्बी लड़ी लगी रहती
इस लड़ी में उलझी पड़ी कड़ी का रूप महाकाली-सा है

मन के बागीचे में सारे गुल बेमौसम ही खिलते हैं
ना खाद है ना खुर्पी पर समझे खुद को मन माली-सा है

कभी प्रेमी जैसे छेड़ दिया, कभी बच्चों जैसी जिद पकड़ी
मन का मुझसे रिश्ता मानो कुछ-कुछ जीजा-साली सा है

ना भूत-पिशाच की चिंता है, ना रावण से कोई पंगा है
तुलसी के निठल्लेपन का नतीजा हनुमान चालीसा है

इस महंगाई में चावल आलू मटर कहाँ से लायेंगे
अपनी तो है वो दुनिया जिसमें हर पुलाव ख्याली-सा है

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