Friday, November 07, 2014

बाज़ारू

मियां अशरफ़ अली
ठिकाना गुमनाम गली
साल भर वजूद की तलाश में सर धुनता है
मगर नवरात्रों में
रावण का सर वही बुनता है
नौ दिन, नौ रात
भूले से ही कभी निवाला चखता है
बिना इरादा किये
पूरे नौ व्रत रखता है

रामदीन लहरी
ठिकाना पुरानी कचहरी
साल भर बिखरी हुई ज़िन्दगी के टुकड़े चुनता है
मगर उर्स में
गुलाब-मोगरे की सबसे बेमिसाल चादर
वही बुनता है
भूल जाता है अपना जन्मदिन
मगर पीर का याद रखता है
अनजाने, बिन माने
अपनी इबादत रोज़ परखता है

फ़ारुख़ अफ़रोज़ 'फ़र्रा'
ठिकाना अँधेरा कोना, सुनसान दर्रा
साल भर माँ-बाप और पुलिस की गालियाँ सुनता है
मगर मुहर्रम आते ही
अशूरा के जुलूस के लिए लौंडे वही चुनता है
ना इमाम हुसैन की शहादत
ना ज़िन्दगी के बारे में इल्म रखता है
मगर बेरोज़गारों के बाज़ार में
बवाल काटने का हुनर
बढ़िया परखता है

बीरबल सिंह 'भाया'
ठिकाना बड़ा चौराया
साल भर कोरी कमसिन कलियाँ चुनता है
मगर चुनाव आते ही
जातियों का मकड़जाल
वही बुनता है
शकल हीरो की, अकल विलेन की रखता है
Market में बढ़िया बिकने वाली
जाति वही परखता है

ना किसी को मज़हब की दवा
ना ही चाहिए राजनीति की दारु
सबको चाहिए बिकने वाला माल
सब के सब ससुरे हैं बस बाज़ारू

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