Thursday, February 05, 2009

एक उबासी

Thanks for the title Badi ma

प्रायः गहन चिंतन के रोगी
होते हैं सन्यासी योगी
पर असमंजस में पड़ जाते
मुझ जैसे विलासिता भोगी

अकस्मात् जब बीच बात में
जिह्वा पे ताले पड़ जाते
ऐसे ही टकटकी लगा कर
शून्य दिशा नैन गड़ जाते

ऐसी मुद्रा मात्र देख कर
पापी के सब व्यसन छूटते
ध्यान लगा कर, फुटेज खा कर
मुख से तब यह वचन फूटते

"हे बंधू यह जीवन क्या है?
ब्रह्मज्ञान पाने का अवसर
क्षणिक सुखों में रखा क्या है
नहीं हैं टिकते एक क्षण-भर"

बिना भूमिका जब यह सुनता
किंकर्तव्यविमूढ़ सा बनता
मन में रहता चंचल चितवन
पर कह पाता बस "सत्यवचन"

यहाँ नहीं रुकते सन्यासी
"सुन हे मूर्ख भोग विलासी,
आत्मा है ज्ञान की प्यासी"
मेरा उत्तर - एक उबासी

मेरी इस उदासीनता को
बाबा बचपना समझते हैं
और अपनी कर्कश वाणी को
अमृत से सना समझते हैं

बस इक जम्हाई के बदले
झेलेंगे ज्ञान गुरु से सब
और मुंह को हाथ से ढकने का
रखेंगे ध्यान शुरू से अब

"तेरा भाग्य क्या तेरे हाथ है,
या है कोई दैवीय योजना?
ईंट और गारे के जंगल में,
नहीं सुगम इंसान खोजना"

मैं डरा डरा सा बैठा हूँ
बस भाग निकलने की सुध में
ये भरे भरे से बैठे हैं
हैं भाग्य बदलने के मूड में

ईंट और गारे का जंगल, वाह
क्या बात कही है मान गए
पर इस अंधे से ये पूछो,
क्या बना इसे भगवान गए?

"हे बच्चा सुन, है सच्चा ध्यान-

धरम ही सच्चे सुख का द्वार
है आत्मबोध निर्वाण का पथ,
अद्वैत की है महिमा अपार"

हाँ हाँ अद्वैत है सच्चा सुख 
सांसारिक मोह देता बस दुःख 
चलो हम भी लगायें ध्यान, मगर 
पहले इतना बूझो विप्रवर 

है कौन जो ध्यान लगाता है?
और निर्वाण कौन पाता है?
माँ माया, बाप भी है माया 
फिर तू जग में कैसे आया?

"तू निरा मूर्ख अज्ञानी है 
जीवन तो बहता पानी है 
नहीं कोई कहीं से है आया 
जो पाया यहीं पर है पाया"



भैया तुम निकले गुरुघंटाल 
फर्जी है तुम्हारा मायाजाल 
क्या लाये क्या ले जाओगे: 
ये जुमला कब तक चलाओगे?

भगवान भरोसे बैठे हो 
और बिना बात के ऐंठे हो 
ये नश्वर और वो क्षणभंगुर 
ज्ञानी हो या गीता प्रेस गोरखपुर?

"तू एक दिन सब कुछ खोएगा 
मेरे चरणों में रोयेगा 
भक्ति-पथ ठुकराने वाले 
तेरे बुरे दिन हैं आने वाले"

सच कहते हो विप्रवर प्यारे
तुम्ही हो तारणहार हमारे
छूटेगी सब भोगासक्ति
पर न मिलेगी फिर भी भक्ति

क्षमा करो हे सर्वज्ञानी
तुम्हरा डसा न मांगे पानी
रहो घोर संलग्न मनन में
मुझे न डालो इस उलझन में

6 comments:

Alpha said...

Sigh!

Unkool said...

Aww :)
I'd post an English version but I'm afraid the meaning would be lost in translation. It's a typical hindi theme, making fun of those who renounce worldly pleasures to seek hgher knowledge. We have way too many of those!

सुधांशु said...

JITNI HINDI AATI THI EK BAAR MEIN CHOD DI?

Unkool said...

haan be, hindi aur tumhari maa mein yehi samaanta hai

Ero-Sennye said...

Good stuff. I remember reading a poem, which was written in a more serious tone, by Rabindranath Tagore, in school. At that age, it shaped my views, and it appealed to me. I can't recall the name, I read it in Hindi, it had something like "swachch paridhaan tyaag do, ... karm mein hi bhagwaan ki shradha hai", essentially comparing the worker and his life to that of a "yogi". something like that. Do you remember this poem?

सुधांशु said...

han.. dono hi tumhare paas aane se katrati hai :)