Thursday, July 22, 2010

ख्याली पुलाव

सोचा कुछ लफ़्ज़ों से खेलूं, पर अब दिमाग खाली-सा है,
सोचा खरीद लूँ कुछ लम्हे, पर नोट फटा जाली-सा है

हर लम्हा है एक खेल, है इसमें हार-जीत का क्या मतलब?
जो जीता वो तो नहीं सिकंदर, जो हारा गाली-सा है

है गाली बड़ी निराली, पर ये भेद नहीं समझे दुनिया
जो समझे उसके कानो को आलोचन भी ताली-सा है

कह दें सारे ही किस्से या कुछ को बेमौत मर जाने दें,
ऐसे तो सारे किस्सों का आकार एक प्याली-सा है

इन पैरों के नीचे से अब धरती है लगी फिसलने को
अपनी तो है वो दुनिया जिसमें हर पुलाव ख्याली-सा है

No comments: