Tuesday, July 17, 2012

क़लमाँ

क्या कहूँ कहाँ से शुरू करूँ
मैं खुद ही तुझसे हुआ शुरू 

इतनी सी कहनी थी बस बात
सर पे रखे रहना तू हाथ

कुछ ठीक-ठीक अब याद नहीं
पर जब मैं रोता था 
मेरी हर आह का असर कहीं 
तुझपे भी होता था 

एक नीम की टहनी हाथ में ले
तू रातों जगती थी
जब chickenpox की तीखी खुजली
मुझको लगती थी

क्या पता कि कैसे मैंने ये 
पढ़ना-लिखना सीखा 
जब टीचर ने पीटा मुझको
तेरा दिल क्यूँ चीखा?

मैं भूत से कितना डरता था 
क्या है कुछ याद तुझे?
उस महावीर से ज्यादा तेरा
था आसरा मुझे 

अब सोच-सोच के हँसता हूँ 
क्या वो भी मैं ही था?
जिसकी दुनिया में जो भी था 
वो बस तुझसे ही था

कभी बिना बात बैठे-बैठे 
दिया प्यार भरा बोसा 
कभी चांटा जड़ अपने ही हाथ को
जी भर के कोसा 

"कुछ पढ़ो, जहां में नाम करो"
तू ही तो कहती थी 
फिर दूर मुझे खुद से करके 
क्यूँ रोती रहती थी?


हंस के कहता होगा तेरी 
किस्मत लिखनेवाला 
"इसको तो बच्चों के आगे 
कुछ ना दिखनेवाला"

इस खेले में कभी जीत मिली 
और कभी मिली मुझे हार 
पर जीत-हार से परे है माँ
तू और तेरा ये प्यार 

मैं चार लफ्ज़ से क्या तेरा
ये क़र्ज़ चुकाऊंगा 
गर कोशिश की तो लिखते-लिखते
ही मर जाऊंगा 

बस बहुत लगा लिया मस्का 
बिन बात के ही तुझको 
चल हलवा खीर समोसे का
अब भोग लगा मुझको

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