Saturday, July 21, 2012

ललकार

जो चाहा मुझको मिला नहीं 
है खुद से खुद को गिला कहीं
क्या मेहनत का है सिला यही?
है खुद से खुद को गिला कहीं


एक-एक कंकर कर के 
था रस्ता साफ़ किया मैंने 
छोटी-सी गलती पर भी ना
था खुद को माफ़ किया मैंने


सब आशाओं को जोड़ के फिर 
था पर्वत-सा एक लक्ष्य बना
कई लोग थे टीले से ही खुश 
पर मैंने ऊंचा ध्येय चुना 


पर्वत मुझसे वो हिला नहीं 
है खुद से खुद को गिला कहीं 


था ध्यान धरा हर धागे पे
और बुना था एक रेशमी ख्वाब 
तारे तो सब हैं बन जाते 
मुझको बनना था आफताब 


सोचा था होगा एक रोज़ 
तारों पे बड़ा रुबाब मेरा 
क्या कमी रह गयी बुनने में 
कच्चा-सा रह गया ख्वाब मेरा 


ये रेशम मुझसे सिला नहीं
है खुद से खुद को गिला कहीं


एक घास के ढेर-सी है दुनिया
और हम सब केवल तिनके हैं
पर गुल बन पाने के अरमां
दिल के कोने में जिनके हैं


वो मुझ जैसे कुछ पागल हैं
दुनिया की भीड़ से रहते दूर
नहीं मानते सच की सच्चाई
भले सपने हो जायें चूर-चूर


पर वो गुल क्या जो खिला नहीं
है खुद से खुद को गिला कहीं


खैर वो मंज़िल भी क्या मंज़िल 
आसान हो जिसको पा लेना 
जिससे जीने में जान आये 
उस दर्द की भी क्या दवा लेना 


अँधेरे से याराना है 
गर रात घनेरी ढले तो क्या 
मंज़िल तो पानी है मुझको 
कोई साथ अगर ना चले तो क्या 


मुसाफिर हूँ काफिला नहीं 
अब खुद से मुझको गिला नहीं 


बस हार के डर से डर के मैं
मैदान कभी ना छोडूंगा
भगवान अगर तू है तो सुन 
मैं किस्मत का मुंह मोडूँगा 


हाथों की रेखा घिस-घिस के 
तेरे लिखे को बदलूँगा एक दिन
और सिखाऊंगा हर इंसां को
जीना तेरे संबल के बिन


तू किसी को अब तक मिला नहीं
तुने घाव किसी का सिला नहीं
अब थमेगा ये सिलसिला नहीं
अब खुद से मुझको गिला नहीं

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